क्या करूं...क्या मैं...
Self pondering on love..!
Yes the question remains albeit the answers change.
Writing these, I confess I find some times when it's hard to love. May it be a transition, a desire to remain as it is, growing a sense of self love or respecting too much of one's own space. Answer varies. Pondering this....
क्या कर न पाऊंगा मैं प्यार फिर से
क्या कर न पाऊंगा मैं प्यार फिर से
उनसे नहीं तो किसी से ।
क्या बांट न पाऊंगा वक्त फिर से
तुमसे नहीं तो किसी से ।
अब सिर्फ़ ये वक्त है
गुजरते गुजरते मन के अल्फाज़ो में
स्याही डाल जाता है ।
क्या मैं लिख न पाऊंगा वो गज़ल फिर से
बैर नहीं उनसे खामोश नहीं तुमसे ना इश्क किसी से।
क्या खोज न पाऊंगा खुद को फ़िर से
कि डूबा हूं कहीं या फिर निकला ही नहीं कभी तुमसे।।
क्या कर न पाऊंगा मैं प्यार फिर से
हां किसी से नहीं तो एक बार फिर तुमसे।।
Signifying the vestiges of truth, hidden in the dimensions of time, we go through this phase may not just be once.
Apart from this, there lies other dimensions within as stated before. A stage where you can't decide whether to let fall and then fly, or stand there starring sometimes down and then the sky.
क्या करूं
कह दूं या फिर रह लूं
ऐसे सोचू तो अल्फाज तो बहुत हैं,
बातें हैं यादें हैं ख्वाब हैं,
पर ज़ालिम आंखें और जुबां
एक साथ काम ही नहीं करते
तो आखिर क्या करू
कह दूं या फिर सह लूं
ये जो बेनाम सा अहसास है
बयां न हो पाए तो डर लगता है
कि ये बेनाम ही न रह जाए
कभी बयां हो जाए तो ये डर लगता है
कि ये अहसास ही न गुम हो जाए
तो आखिर क्या करू
कह दूं या फिर से सोच लूं
डर नहीं उनके न का
न गम किसी बेवफाई का
बस वक्त नहीं बांटने को
तो आखिर क्या करू
कह दूं या फिर यूं ही लिख लूं
मोहाबत्त भी है और चाहत भी
किसी को खोने का डर नहीं
तो किसी को पाने की तिश्नगी भी
गलीबन क्या है ये
कहीं ये नशा तो नहीं अपनेपन का
या दो साल के अकेलेपन का,
तो आखिर क्या करू
कह दूं या फिर जाने दूं।
I am writing this to let me remind the questions I faced and the various answers I tried to fit in.
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