लिख लिया करता हूं मैं
माना कि कबीर नहीं मैं जो दोहों में जिंदगी लिख दूँ माना कि गुलज़ार नहीं मैं कि अल्फाजों से दुनिया बतला दूँ फिर भी लिख लिया करता हूँ मैं इन दिवारों को ही अपनी ग़ज़ल सुना लिया करता हूँ मैं फिर भी लिख लिया करता हूँ मैं कभी हकीकत तो कभी ख्वाब बुन लिया करता हूँ मैं माना कि तेरा रांझन नहीं मैं जो अपने नाम पर तेरा नाम लिख दूं फिर भी याद कर लिया करता हूँ मैं कभी मोहब्बत तो कभी बेवफाई लिख लिया करता हूँ मैं