कहना वोही कसूर है

What's a Scapegoat! बेकसूरों की महफ़िल में आखिर महफ़िल ही कसूर है। लपटों से गीत में, अंगारे भी शांत हैं, आवाजों के इस बाजार में सच केवल गुम सा है। चिंगारी भड़के आग के पर लब्जों की आग में, आखिर हवा ही कसूर है॥ गालीबन ग़ज़ल के कुछ अल्फाज़ हैं, ना भाय तो आखिर कलम ही कसूर है। हजारों रंगों से भीगे जिस्म है, जिसमें अभीर भी फिका है। खुद बदले तो ठीक कोई बदला कुछ बदला.. तो कहना वक्त ही कसूर है॥ कसूरों की महफ़िल में आखिर जालिम खूद ही एकमेव बेकसूर हैं। ख्वाब बदले कोई जगह जैसे, पल भर कहना तो सही नहीं, मन बदले हर वक्त वैसे । मुकम्मल ना हो एक मोहब्बत तो.. तो कहना हर वो जज्बात ही कसूर है॥ कल कोई चाहता चहरा पसंद ना आए तो कहना वो इंसान ही कसूर है। कल एक इंसान ही ना भाय.. तो आखिर कहना वो खुदा ही कसूर है॥ क्योंकि.. बेकसूरों की महफ़िल में आखिर महफ़िल ही कसूर है॥